नसीहत देने में नहीं, अमल पर यकीन
जोगिंद्र सिंह/ट्रिन्यू
चंडीगढ़, 25 मार्च
बहुत से लेखक खूब नसीहत देते हैं कि वे जात-पात की बेड़ियां तोड़ें और दहेज जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ आवाज उठायें। लेकिन अगर कोई व्यक्ति इसे हकीकत में बदले और वह लेखक भी हो और महिला भी तो इससे ज्यादा प्रामाणिक अनुभव और सलाह कोई नहीं हो सकती। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर ये सब करने वाली स्वयं एक दलित लेखिका हो तो अहमियत और भी बढ़ जाती है। जी हां, हम बात कर रहे हैं हिंदी साहित्य में अपनी पहचान बनाने वाली दलित लेखिका सुशीला टाकभौरे की। अपनी बेटियों में स्वतंत्र सोच विकसित करने और उन्हें शिक्षित करने में उन्होंने अपना सब कुछ लगा दिया। पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कल होने वाले एक समारोह में शिरकत करने नागपुर से आयी प्रो. सुशीला ने अपनी 3 बेटियों में से एक की शादी अंतरजातीय की है जबकि दूसरी बेटी की शादी बिना दहेज के की है। एक बेटी की शादी अभी होनी है। अब तक 16 पुस्तकें लिख चुकी टाकभौरे का लेखन महिलाओं की आजादी और उनके अस्तित्व पर केंद्रित है।
परिवर्तन तो आ रहा है मगर रफ्तार है कम
एक आशावादी लेखिका के रूप में वह मानती हैं कि परिवर्तन तो आ रहा है मगर रफ्तार कम है। सवर्णों का उनके प्रति रवैया एकदम नहीं बदलेगा।